शहर के
एकांत में
हमको सभी छलते
ढूँढ़ने से भी यहाँ
परिचित नहीं मिलते।
बाँसुरी के
स्वर कहीं
वन प्रांत में खोए,
माँ तुम्हीं को याद कर
हम देर तक रोए,
धूप में हम बर्फ के
मानिंद हैं गलते।
रेलगाड़ी
शोरगुल
सिगरेट के धुएँ
प्यास अपनी ओढ़कर
बैठे सभी कुएँ
यहाँ टहनी पर
कँटीले फूल बस खिलते।
गाँव से
लेकर चले जो
गुम हुए सपने
गाँठ में दम हो तभी
ये शहर हैं अपने
यहाँ साँचे में सभी
बाजार के ढलते।
भीड़ में
यह शहर
पाकेटमार जैसा है,
यहाँ पर मेहमान
सिर पर भार जैसा है,
भीड़ में तनहा हमेशा
हम सभी चलते।